स्वाध्याय का महत्व एवं आवश्यकता


What is the importance of swadhhy

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          स्वाध्याय का महत्व एवं आवश्यकता

प्रस्तावना

स्वाध्याय का महत्व और आवश्यकता

स्वाध्याय क्या है

स्वाध्याय-काल

स्वाध्याय के भेद

स्वाध्याय कैसे करे 

स्वाध्याय किस का करे

उपसंहार

 

प्रस्तावना

 

 

स्वाध्याय बिन होत नहीं, निज पर भेद विज्ञान।
जैसे मुनि पद के बिना, हो कवेलज्ञान।।

स्वाध्याय के बिना हममें अपने शरीर के अंदर छिपी हुई आत्मा का ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे नेत्र रहित व्यक्ति सूर्य के दर्शन नहीं कर सकता, वैसे ही आगम से रहित मानव अपनी आत्मा का दर्शन नहीं कर सकता कहा भी है।

 जैसे जमीन में बीज न बोये तो खरपतवार उग जाती है ।वैसे ही अगर स्वाध्याय न किया जाये तो मन में विचारो में नकारात्मकता आती है ।

स्वाध्याय का महत्व और आवश्यकता

स्वाध्याय के महत्त्व को यदि हम वर्तमान परिपेक्ष्य में कही तो आज के तनाव पूर्ण जीवन में मनुष्य को सही दिशा यदि कोई दे सकता है तो वह है सवयं का ज्ञान और विवेक । स्वाध्याय ही हमे स्वय के अध्यन की ओर लगा सकता है । जैन आगम में हमे जीवन दर्शन के अलावा सर्वश्रेष्ट जीवन शैली की भी व्याख्या मिलती है  ।अतः यदि हम स्वाध्याय को सही प्रकार से करे तो ही हम जीवन को जी सकते है । जीवन शैली को कैसे जीना है इस हेतु हमे पता होना चाहिए की स्वाध्याय क्या है ,कैसे करे ,कब करे ,किसका करे ।

स्वाध्याय क्या है

सत्शास्त्र का वांचना, मनन करना, या उपदेश देना आदि स्वाध्याय कहा जाता है जो सर्वोत्तम तप माना गया है मोक्षमार्ग में इसका बहुत ऊँचा स्थान है। यथा विधि यथा काल ही स्वाध्याय करना योग्य है।

स्वाध्याय-काल

 जब हमारे पास समय हो उसी समय स्वाध्याय करना शुरू कर देना चाहिए, यही उसका समय है। परंतु यह बात ठीक नहीं, क्योंकि खेत में बीज समय पर डालने से फलदायी होता है, उसी प्रकार समय पर किया हुआ स्वाध्याय ही समय को (आत्मा को) प्राप्त कराने में समर्थ हो सकेगा। पुस्तकों का पठन-पाठन व आत्म गुणों का चिन्तन तो हम हर समय कर सकते हैं चाहे दिन हो अथवा रात परंतु सैद्धांतिक ग्रंथों का स्वाध्याय तो समय से ही करना चाहिए। अकाल में स्वाध्याय करने का निषेष करते हुए आचार्य इन्द्रनन्दि ने ‘नीतिसार’ में लिखा है -

सिद्धांते वाच्यमाने स्याद्यदि मेघस्य गर्जनम्।
विद्युतो दर्शनं चापि तदानध्यययनं मतम्।।109।।
भानोरूदयतो डोद्विकं स्वाध्यायगोचरः।
ततो मुनिः प्रवर्तेत योगयकृत्येषु नित्यशः।।110।।

भावार्थ - सिद्धांत शास्त्र के पढ़ते समय यदि बादल गरजें अथवा बिजली चमके तो सिद्धांत ग्रन्थ न पढ़ना। सूर्य उदय के दो घड़ी बाद स्वाध्याय करें तत्पश्चात ही अन्य आवश्यक कार्यों में मुनि प्रवृत्ति करें।सूर्यग्रहण आदि काल स्वाध्याय के लिए अयोग्य समझे जाते हैं।आचार्यों ने अकाल दिन-रात में चार समय बताया है जो सामायिक का समय है उसे ही अकाल समय कहते हैं। उस समय सिद्धांत ग्रन्थों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, क्योंकि लाभ हो ही नहीं सकता, आगम-निषिद्ध है इसलिये हानि अवश्य हो सती हैं। इसलिये निजपथ को खोजने वाले भव्य जीवों को स्वाध्याय समय पर ही करना चाहिए। मनन हर क्षण कर सकते हैं।

 

स्वाध्याय के भेद

आचार्या ने स्वाध्याय के पांच भेद बताये हैं, आचार्य श्री उमास्वामीने ‘तत्वार्थ सूत्र’ में स्वाध्याय के भेद करते हुए कहा है -

वाचनापृच्छनाऽनुप्रेक्षाम्नायधर्मोंपदेशाः।।25।। 009।।

अर्थ -1 वाचना - आत्मकल्याण के लिए निर्दोष ग्रन्थों का स्वयं पढ़ना, दूसरों को बताने अथवा पढ़ाने के लिए पढ़ाना, वाचना नामक स्वाध्याय है2 पृच्छना - सत्पथ की ओर गमन करने के लिए, मार्ग व पदार्थों का स्वरूप निश्चय करना तथा संशय निवारणार्थ प्रश्न पूछना, पृच्छना नामक, स्वाध्याय का द्वितीय भेद है।3 अनुप्रेक्षा - मन की स्थिरता कायम रखने के लिए, निश्चित किये हुए वस्तु स्वभाव व पदार्थ स्वरूपक बार-बार मनन-चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।4 आम्नाय - चित्त रोककर शांतिदायक पाठों को शुद्धतापूर्वक पढ़ना, याद करना, धोकना, मनन करना अम्नाय नामक स्वाध्याय है।5 धर्मोंपदेश - सत्य की खोज करने के लिए मार्ग तथा संदेह निवृत्ति के लिए पदार्थ का स्वरूप कहना तथा श्रोताओं की सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र में प्रवृत्ति के लिए धर्मोपदेश करना, प्रवचन देना, यह कहलाता है धर्मोंपदेश, स्वाध्याय का पांचवां अंग है। इस प्रकार स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है। मन, वचन, काय से इस स्वाध्याय में रत रहना ही खोज है आत्मा की, प्राप्ति है सुख की, बार (वारगा) है अशुभ को रोकने की।

स्वाध्याय कैसे करे 

स्वाध्याय विनय के साथ करे ,स्वाध्याय करते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि जिनवाणी का कहीं अविनय तो नहीं हो रहा क्योंकि जिससे हमें कुछ लेना है, उसी का अविनय करें तो घोर परिश्रम करनेपर भी कुछ नहीं प्राप्त होाग। स्वाध्याय भी स्व की खोज के लिए किया जाता है। अगर उसका विनय न किया तो एक तो विनय गुण की हानि होगी ओर द्वितीय स्वाध्याय करने पर भी स्व का ज्ञान नहीं होगा। अगर होगा भ, तो मात्र शास्त्र ज्ञान, शब्द ज्ञान। आगम-ज्ञान होने से मात्र पण्डित बन सकते हैं सुख तो आत्म-ज्ञान होने पर ही प्रापत होगा, इसलिए शास्त्रविनय के लिए स्वाध्याय से पूर्व एक चैकी पर साफ कपड़ा बिछाकर, उसके ऊपर शास्त्र जी को विराजमान कर, नमस्कार कर तत्पश्चात मंगल मंत्र बोलते हुए शास्त्र जी को खोलें और मंगलाचरा बोलें। जितने समय स्वाध्यााय करें उतने समय एक आसन से बैठें और फालतू चर्चा न करें न सुनें। स्वाध्याय करने के पश्चात शास्त्र को यथास्थान विरारजमान करें व भक्तिपूर्वक नमस्कार कर किये हुए स्वाध्याय का मनन, चिंतन, करते रहें, आचरण में लाने का प्रयत्न करें। यह सब कहलती है शास्त्र-विनय। विनय बिना विद्या के नही आती, विद्या के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना मुक्ति-लक्ष्मी नहीं मिलती, मुक्ति लक्ष्मी के बिना सुख नहीं मिलता।

स्वाध्याय किस का करे

स्वाध्याय किन ग्रन्थों का?हमें सही मार्गदर्शन वे ही शास्त्र दे सकते हैं, जिनके रचयिताओं ने सही मार्ग प्राप्त किया हैं जिन्होनं अपने को भली प्राकर जान, कर्ममन से परे हो संसार को भी जान लिया है, ऐसे भगवान जिनेन्द्र देव द्वारा कहे हुए, किया है चार ज्ञान के धारक गणधरों ने अर्थ जिनका और संसार-शरीर-भाोगों से विरक्त ऐसे 36 मूलगुणों के धारी आचार्यों ने की जिनकी रचना ऐसे सद्शास्त्र हैं, स्वाध्याय करने योगय। इनके अतिरिक्त रागवर्धक, एकानतपोषक, मिथ्यात्व से परिपूर्ण कुशास्त्रों को पढ़ने से हमारे अंदर एकांत आ जाता है। इसी प्रकार मुक्ति-पथ गामी, वीतरागी, आचार्यों के ग्रन्थ को पढ़ने-सुनने, अनुभव करने से दिखने लगे सच्चा मार्ग, उत्पन्न हो उठेगी भावों में वीतरागता, हो जायेगा उसी समय भेदज्ञान। इसलिये आचार्यों द्वारा और उनके अनुसार ही जो ग्रन्थों की रचना की गयी हो मात्र वही शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य है। आचार्यों ने उन सब ग्रन्थों को चार भागों मं विभाजित किया है - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग। इन चारों का स्वाध्याय किये बिना अनेकांत हमारे में नहीं आ सकता। इसलिए चारों अनुययोगों का स्वाध्याय करना आवश्यक है।

उपसंहार

स्वाध्याय का शुरू तो है किन्तु अंत नहीं पर अपनी बात को विराम सिर्फ चंद बातो से करती हु

जीवन का आगाज़ है पर अंत नहीं

स्वाध्याय से ज्ञान है असीम ही सही

सीमा में बंधन है पर जरुरी भी है

स्वाध्याय से जाना है मर्यादा में रहना

जिनवाणी में पाया है जिनवर को ध्याय है 

 

श्रीमती अनुपमा जैन

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